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इन्द्रा॑ ह॒ रत्नं॒ वरु॑णा॒ धेष्ठे॒त्था नृभ्यः॑ शशमा॒नेभ्य॒स्ता। यदी॒ सखा॑या स॒ख्याय॒ सोमैः॑ सु॒तेभिः॑ सुप्र॒यसा॑ मा॒दयै॑ते ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indrā ha ratnaṁ varuṇā dheṣṭhetthā nṛbhyaḥ śaśamānebhyas tā | yadī sakhāyā sakhyāya somaiḥ sutebhiḥ suprayasā mādayaite ||

पद पाठ

इन्द्रा॑। ह॒। रत्न॑म्। वरु॑णा। धेष्ठा॑। इ॒त्था। नृऽभ्यः॑। श॒श॒मा॒नेभ्यः॑। ता। यदि॑। सखा॑या। स॒ख्याय॑। सोमैः॑। सु॒तेभिः॑। सु॒ऽप्र॒यसा॑। मा॒दयै॑ते॒। इति॑ ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:41» मन्त्र:3 | अष्टक:3» अध्याय:7» वर्ग:15» मन्त्र:3 | मण्डल:4» अनुवाक:4» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (धेष्ठा) धाता जनो (इन्द्रा) राजन् (वरुणा) और उत्तम गुणों से युक्त प्रधान ! (यदी) यदि जिन तुम दोनों ने (शशमानेभ्यः) प्रशंसा करते हुए (नृभ्यः) मनुष्यों के लिये (ह) ही (रत्नम्) सुन्दर धन दिया तो (ता) वे (सखाया) परस्पर मित्र आप दोनों (सख्याय) मित्रपन के लिये (सुप्रयसा) श्रेष्ठ प्रयत्न से (सुतेभिः) उत्पन्न किये गये (सोमैः) ऐश्वर्य्यों से (मादयैते) सुख को प्राप्त हों (इत्था) इस प्रकार से आप दोनों निश्चय आनन्दित हों ॥३॥
भावार्थभाषाः - जो राजा और मन्त्रीजन उत्तम गुणवाले मनुष्यों का धन आदि से सत्कार करते हैं, वे ही ऐश्वर्य्य को प्राप्त होकर सदा आनन्दित होते हैं ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे धेष्ठा इन्द्रावरुणा ! यदि युवाभ्यां शशमानेभ्यो नृभ्यो ह रत्नं दत्तं तर्हि ता सखाया भवन्तौ सख्याय सुप्रयसा सुतेभिस्सोमैर्मादयैत इत्था युवामप्यानन्दितौ भवेथाम् ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रा) राजन् (ह) किल (रत्नम्) रमणीयं धनम् (वरुणा) शुभगुणयुक्तप्रधान (धेष्ठा) धातारौ (इत्था) एवं प्रकारेण (नृभ्यः) मनुष्येभ्यः (शशमानेभ्यः) प्रशंसमानेभ्यः (ता) तौ (यदि) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (सखाया) परस्परं सुहृदौ (सख्याय) सख्युर्भावाय (सोमैः) ऐश्वर्यैः (सुतेभिः) निष्पादितैः (सुप्रयसा) सुष्ठु प्रयत्नेन (मादयैते) सुखयेताम् ॥३॥
भावार्थभाषाः - ये राजामात्याः शुभगुणानां जनानां धनादिना सत्कारं कुर्वन्ति त एवैश्वर्य्यं प्राप्य सदा मोदन्ते ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे राजा व मंत्रीगण उत्तमगुणयुक्त माणसांचा धन इत्यादींनी सत्कार करतात तेच ऐश्वर्य प्राप्त करून सदैव आनंदित राहतात. ॥ ३ ॥